Thursday, October 30, 2025
कुरिअर !
कुरिअर !
होय् मी आहे एक कुरिअर सेवा देणारा ! असे पहा, जे जे काही तुमचेपर्यंत पोंचवण्याचा छंद लागलाय मला आतांशा, तो या ‘कुरिअर’ भावनेमुळेच. खरं तर त्यात माझं स्वत:चं फार कमी असतं, केवळ मी ते तुम्हाला छानशी वेष्टनं लावून पोंचवीत असतो. आजही मी तसेच काहीसे करणार आहे. आतली वस्तू अनमोल असणार आहे सबब वेष्टन सोडवतांना निवान्त, काळजीपूर्वक कात्री लावा ही विनंती !
मागे कधीतरी साताऱ्या नजीकच्या ‘संत-नगरी’बद्दल मी तुम्हाला सांगितले होते. संदर्भ म्हणून आठवण करून देतो की प.पू. गोंदवलेकर महाराजांचे एकनिष्ठ अनुग्रहित श्रीमान डॉ. सुहास पेठे काकांनी एक अतिशय सुंदर, निवान्त, मात्र विलक्षण दैवी स्पंदनांनी भारावलेलं साधना केंद्र सुरू केले होते ज्यांत चोवीस तास अखंड श्रीराम-नामाचा वैखरी जप चालत असे. (या संतनगरी विषयीं तुम्ही अनभिज्ञ असाल तर मागणीनुरूप तीही वांछा नक्कीच पूर्ण करायचा प्रयत्न करीन मी)
मात्र आज सांगणार आहे श्री पेठेकाकांनी रचलेली काही सुंदर हिंदी पदें, जी विलक्षण आशयगर्भित आहेत. अर्थात त्यांची फोड करून सांगण्याचा प्रमाद मी आजतरी करणार नाही. सो, हियर वुई गो………!
१). “मेरी यात्रा”
‘मुझे भेंट का वचन देकर
आंखों से ओझल होते हुए
आप इतनी आगे निकल चुके थे
हे प्रभू,
कि
आपका पीछा करने की असफल कोशीश में
तन का कण कण थका हुआ मैं
रास्ते की मिट्टीमे ही फिसलकर बैठ गया
हारा हुआ——-
तो कुछ ऐसा हुआ
संयोगवश मैने पीछे देखा
तो आपही खडे थे-
हलकीसी मुस्कुराहट चेहेरे पर लिए हुए !
अवाक् सा मैने आंखें बंद कर लीं
अविश्वास के साथ
तो फिर कुछ ऐसा हुआ कि
आपने फिर एकबार दर्शन दिए मुझे
मेरे ही अंदर
हृदय के अंतरतम में
अब पूरी तरह हंसते हुए !
और भी अविश्वास के साथ
मैनें आंखें खोलीं
फिर पाया कि
आगे न कोई राह थी,
न पीछे !
पाया कि
मेरी यात्रा तो
मुझमे ही
समाप्त हो गई है ! ! “
२). “लम्बा सफर”
अब जाकर समझ मे आता है कि
आपकी ओर आने मे
इतनी बाधाएं क्यों खडी हैं ?
विश्व-विजय के ढंग से
बाहरी बाधाओं का तो
कुछ हल हो सकता है
पर
बाधाओं को न पहचाननेसे,
दूर करने के कर्तव्य को न निभाने तक
मैं तो स्वयं ही खडा हूं, बाधा बनकर
आपकी ओर ले चलने वाले सीधे रास्ते में !
मै, जो अपने ही कर्मों के परिणामों की तीव्र धूप मे
जलते हुए, उससे छुटकारा पाने के लिए
की गई आपकी यादों को
आर्त भक्ती मानता हूं,
मेरी मानवीय इच्छाओं को
ईश्वरी प्रेरणा समझता हूं
आपको मेरा ध्येय न मानकर
मेरे ध्येय मे आपको देखता हूं !
फिर सफर और भी लंबा हो जाता है ! ! “
३). “अ-नाम”
सुना है
संसार मानता है कि
आपका ‘नाम’ लेनेवाला
भीड की नजरों मे
कुछ ‘बदनाम’ हो जाता है !
पर, अनुभव तो यह है कि
प्रभुनाम लेनेवाले को
‘बदनामी’ की तो फिक्रही नहीं,
वह ‘अनाम’ हो जाता है !
४). “साथ”
जब मैं घने जंगलों मे भटक रहा था,
उमडती हुई भीड मे मश्गूल था
तब भी आप साथ में मौजूद थे
लेकिन जब से मै इन चार दीवारों मे रह रहा हूं,
चन्द लोगोंमे बस गया हूं
तब भी आप साथ मे मौजूद हैं !
अब तो न लोग, न शब्द, न ध्वनी
फिर भी मेरे मौन मे भी
आप साथ में मौजूद हैं !
साफ है कि आप इससे आगेवाली
किसी भी स्थिती-गती मे
मेरे साथ मौजूद ही रहेंगे,
आपका साथ अनादि और अनंत है ! ! “
अजून खूप आहेत बरं का मंडळी !
रहाळकर
३० अक्टूबर २०२५.

