Thursday, October 30, 2025

 

हिन्दी का मुझपर प्रभाव !

 हिन्दी का मुझपर प्रभाव

एक अरसा गुज़र गया मेरी प्रिय हिन्दी भाषा का यथार्थ और समयोचित प्रयोग करते हुए। फिर यूँ सोचा की इसी बहाने कुछ मन की बातें आपके समक्ष रख ही दूँ ! वैसे हिन्दी तो हमारी केवल दूसरीही भाषा रही है, लेकिन सौतेली माँ जैसी नहीं, अपितु वह करीब करीब मातृभाषा जैसीही मुखरित होती रही। चूंकी स्कूल और कालेज में हिन्दी सहपाठी ज़्यादा हुवा करते, अंग्रेज़ी से कहीं ज़्यादा हिन्दी का प्रयोग अनिवार्य भी तो था ना ! वैसे भी इन्दौर जैसे महानगर में पैदाइश हुई, लालनपालन हुआ, बढेपले इन्दौरमे और वहाँ मालवी भाषा का भी काफ़ी मिश्रण हुआ करता विशेषकर बोलीभाषा मे। बोलीभाषा का ज़िक्र करूँ तो मालवी, वैदर्भीय, कोंकणी और खास देहाती मराठी मुझे ज़्यादा सुहाती हैं, हालाँकि शुद्ध और सही मराठी भाषा का मैं अच्छी तरह इस्तेमाल करता हूँ - यह मेरे पाठकोंकी अक्सर राय हुआ करती है ! ! 


इन्दौर छोड़कर अब तो करीब छह दशक हो चुके। शायद इसीलिये अपनी दूसरी मातृभाषा हिन्दी को शुद्ध रूप में  बोल पाना कठिनसा हो रहा है अब ! ( लिखते समय एक बहुत बड़ा फायदा रहता है, कोई ग़लत शब्द का इस्तेमाल हम फौरन मिटा सकते हैं लेकिन बोलते समय अगर ज़ुबान फिसली तो लेने के देने पड़ सकते हैं ! ) अस्तु। 


मैंने अभी अभी कहा था की इन्दौरी लहजे मेंमालवीकी सुगंध आती है, लेकिन वहां लखनऊ और थोड़ा बहुत बम्बैया मिश्रण भी आप पहचान सकेंगे। देहली और बम्बई (मुंबई) के ठीक बीच इन्दौर आता है, शायद इसीलिये एक अच्छा इन्दौर निवासी नईदिल्ली और बम्बई दोनों को पसंद करता है। 


जबतक इन्दौर में रहा, हिन्दी साहित्य में भी काफ़ी रूची रखता था मैं। उन दिनों प्रभाकर माचवे, राहुल बारपुते, राजेन्द्र माथुर, हरवंशराय बच्चन, मुन्शी प्रेमचंद, सुमित्रानंदन पंत जैसे दिग्गज साहित्यकारों को मै काफ़ी चाव से पढ़ लेता। 


वैसे बीते जमाने की बातें करते करते मेरी ज़ुबान और कलम कभी थकती नहीं इन दिनों, लेकिन आपकी सहना को भी तो मुझे ख़्याल रखना चाहिये ना ! ! 

रहालकर

३० अक्टूबर २०२५     


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